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विदेश की खबरें | बढ़ते क्षेत्रीय खतरों के मद्देनजर जापान ने राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को अपनाया

Get Latest हिन्दी समाचार, Breaking News on world at LatestLY हिन्दी. द्वितीय विश्व युद्ध का जिक्र करते हुए जापान के रणनीति संबंधी दस्तावेज में कहा गया है कि चीन, उत्तर कोरिया और रूस सीधे इसके पश्चिम और उत्तर में हैं और जापान ‘‘युद्ध की समाप्ति के बाद से सबसे कठिन और जटिल राष्ट्रीय सुरक्षा माहौल का सामना कर रहा है।’’

विदेश की खबरें | बढ़ते क्षेत्रीय खतरों के मद्देनजर जापान ने राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को अपनाया

द्वितीय विश्व युद्ध का जिक्र करते हुए जापान के रणनीति संबंधी दस्तावेज में कहा गया है कि चीन, उत्तर कोरिया और रूस सीधे इसके सर्वश्रेष्ठ विदेशी मुद्रा रणनीति पश्चिम और उत्तर में हैं और जापान ‘‘युद्ध की समाप्ति के बाद से सबसे कठिन और जटिल राष्ट्रीय सुरक्षा माहौल का सामना कर रहा है।’’

इसमें चीन को उत्तर कोरिया और रूस से पहले ‘‘सबसे बड़ी रणनीतिक चुनौती’’ के रूप में बताया गया है। इसमें कहा गया है कि जापान और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सुरक्षा, शांति और स्थिरता के लिए जापान लगातार प्रयास कर रहा है।

जापान के रक्षा निर्माण को लंबे समय से देश और क्षेत्र में एक संवेदनशील मुद्दा माना जाता रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि चीन के बढ़ते प्रभाव, रूस के यूक्रेन पर आक्रमण और ताइवान के डर से जापान को अपनी क्षमता बढ़ाये जाने की जरूरत महसूस हुई।

केयो विश्वविद्यालय के एक रक्षा विशेषज्ञ केन जिंबो ने कहा, ‘‘ताइवान आपातकाल और जापान आपातकाल अभिन्न हैं।’’

रणनीतिक दस्तावेज में कहा गया है कि मिसाइलों का तेजी से विकास इस क्षेत्र में ‘‘वास्तविक खतरा’’ बन गया है।

उत्तर कोरिया ने इस साल 30 से अधिक बैलिस्टिक मिसाइलें दागीं, जिनमें एक मिसाइल जापानी क्षेत्र के ऊपर से गुजरी थी। चीन ने ओकिनावा सहित जापानी दक्षिणी द्वीपों के निकट पांच बैलिस्टिक मिसाइलें दागीं।

रणनीति से जुड़े नये दस्तावेज में कहा गया है कि जापान को जवाबी हमला करने और भविष्य में होने वाले हमलों को रोकने के लिए लंबी दूरी की मिसाइलों की आवश्यकता है।

जापानी रक्षा अधिकारियों ने कहा कि वे अभी भी टॉमहॉक मिसाइल खरीद को लेकर बातचीत कर रहे हैं।

गौरतलब है कि पिछले महीने जापान और अमेरिका ने सहयोगियों की तैयारियों को बढ़ाने के लिए दक्षिणी जापान में एक संयुक्त सैन्य अभ्यास किया था।

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महंगाई को नियंत्रित रखने की चुनौती, कठोरता के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास की गति मजबूत

कठोर मौद्रिक नीति के अंतर्गत रेपो रेट बढ़ाने की अपनी सीमाएं और चुनौतियां भी हैं। रेपो रेट के नकारात्मक प्रभावों के कारण आर्थिक गतिविधियां कम होने से आर्थिक विकास पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ने लगता है जिससे निम्न आय वर्गों के लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा एक आवश्यकता बन जाती है।

डा. सुरजीत सिंह: मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए हाल में आरबीआइ को आशानुरूप रेपो रेट में 35 आधार अंकों की वृद्धि करनी पड़ी। कोरोना के बाद की परिस्थितियों से निपटने के लिए अब तक पांचवीं बार रेपो रेट में वृद्धि की गई है। अप्रैल 2022 में यह चार प्रतिशत था, जो अब बढ़कर 6.25 प्रतिशत हो गया है। रिजर्व बैंक के प्रयासों का ही परिणाम है कि महंगाई की दर नवंबर में घटकर दस माह सर्वश्रेष्ठ विदेशी मुद्रा रणनीति के निचले स्तर 5.88 प्रतिशत रह गई, जबकि अक्टूबर में यह 6.77 प्रतिशत थी। आरबीआइ की तरफ से महंगाई की अधिकतम सीमा छह प्रतिशत तय की गई है। महंगाई पर नियंत्रण इसलिए भी आवश्यक है कि मुद्रास्फीति की दर ब्याज दर से अधिक होने से वास्तविक ब्याज दरें ऋणात्मक होने लगती हैं जिससे मुद्रा की क्रय शक्ति भी कम होने लगती है।

महंगाई को कम करने का आरबीआइ के पास सबसे बड़ा हथियार रेपो रेट ही है। रेपो रेट के बढ़ने का अपना ही अर्थशास्त्र होता है। इसके बढ़ने से ब्याज दरों में वृद्धि होने लगती है। होम लोन एवं वाहन लोन की दरें बढ़ जाती हैं। इससे एक तरफ बचतों को प्रोत्साहन मिलता है तो दूसरी ओर बैंक से ऋण लेने वाले हतोत्साहित होते हैं। निवेश में कमी आने से समग्र मांग एवं जीडीपी पर इसका असर दिखाई देने लगता है। यही कारण है कि आरबीआइ ने रेपो रेट को बढ़ाने के साथ सर्वश्रेष्ठ विदेशी मुद्रा रणनीति ही विकास दर के अनुमान को भी घटाया है। वित्त वर्ष 2022-23 में विकास दर के अनुमान को सात प्रतिशत से घटाकर 6.8 प्रतिशत कर दिया गया है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि आरबीआइ की नीतिगत कठोरता के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास की गति मजबूत बनी हुई है। दूसरी तिमाही में विकास दर के आंकड़ों से स्पष्ट है कि निजी उपभोग के बढ़ने से मांग धीमी गति से ही सही, परंतु निरंतर बढ़ रही है। सरकार का पूंजीगत व्यय इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। विश्व बैंक की नवीनतम रिपोर्ट भी इस बात का समर्थन कर रही है कि भारत में किए जा रहे नीतिगत सुधारों और विवेकपूर्ण नियामक उपायों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को और अधिक लचीला बनाया है।

जाहिर है कोरोना की चुनौतियों से भारतीय अर्थव्यवस्था को बाहर निकालने में आरबीआइ की मुद्रास्फीति प्रबंधन नीति महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है। अल्पकालिक और दीर्घकालिक विकास को संतुलित करने के उद्देश्य से आरबीआइ के समक्ष मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना सर्वोच्च प्राथमिकता है, जिससे आर्थिक विकास और रोजगार की संभावनाओं में तेजी लाई जा सके। इस संदर्भ में रेपो रेट बढ़ाकर मौद्रिक नीति के माध्यम से आर्थिक स्थिरता, वृद्धि और विकास सुनिश्चित करने में आरबीआइ की भूमिका पहले से भी अधिक महत्वपूर्ण सर्वश्रेष्ठ विदेशी मुद्रा रणनीति हो गई है।

वैश्विक स्तर पर बदलते अनेक ऐसे अंतरराष्ट्रीय कारण भी थे, जो आरबीआइ को रेपो रेट में वृद्धि करने के लिए प्रेरित कर रहे थे। कोरोना के बाद बदलते आर्थिक परिदृश्य एवं यूक्रेन-रूस युद्ध ने दुनिया की आपूर्ति शृंखला को प्रभावित किया है। मुद्रास्फीति से जूझती वैश्विक अर्थव्यवस्था में अब मंदी की आहट सुनाई देने लगी है। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए विश्व के केंद्रीय बैंक अपनी-अपनी ब्याज दरों को निरंतर बढ़ा रहे हैं। आरबीआइ निरंतर इस बात का प्रयास कर रहा है कि बदलती वैश्विक परिस्थितियों में भारत की अर्थव्यवस्था पर मंदी का प्रभाव कम से कम हो एवं भारत दुनिया में सबसे तेज वृद्धि वाली अर्थव्यवस्था भी बना रहे। अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर के अधिक होने के कारण वहां का फेडरल बैंक भी ब्याज की दरों में निरंतर वृद्धि कर रहा है। गत अप्रैल से अमेरिका का फेडरल बैंक इसमें 3.75 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर चुका है। इन स्थितियों में फेडरेल बैंक का अनुसरण करते हुए आरबीआइ को भी अपनी ब्याज दरों में वृद्धि करनी पड़ेगी। अन्यथा विदेशी ब्याज दर के बढ़ने से विदेशी निवेशक अपना पैसा भारत से निकालने लगेंगे, जिसका सीधा प्रभाव मुद्रा के मूल्य में कमी के रूप में हमारे सामने आ सकता है।

इस प्रकार की स्थिति 2013 में भी उत्पन्न हुई थी, जिसे टेपर टैंट्रम का नाम दिया गया था। उस समय भी अमेरिका में ब्याज दरें अधिक हो गई थीं, तब विदेशी निवेशकों ने अपना पैसा भारत से निकाल कर अमेरिका में निवेश करना शुरू कर दिया था। आरबीआइ उस इतिहास को दोहराने से बचने का प्रयास कर रहा है। उस समय डालर के मुकाबले रुपया 15 प्रतिशत कमजोर हो गया था, जबकि जनवरी 2022 से अब तक डालर सर्वश्रेष्ठ विदेशी मुद्रा रणनीति के मुकाबले रुपया केवल 9.5 प्रतिशत ही कमजोर हुआ है। इसके साथ ही अन्य विदेशी मुद्राओं की तुलना में भारतीय रुपया बेहतर कर रहा है। ऐसी स्थिति में भी आरबीआइ द्वारा रेपो रेट में वृद्धि करना जायज है। इससे मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने एवं वैश्विक आर्थिक स्थितियों से निपटने के लिए रुपये को स्थिर बनाने में भी मदद मिल रही है।

कठोर मौद्रिक नीति के अंतर्गत रेपो रेट बढ़ाने की अपनी सीमाएं और चुनौतियां भी हैं। रेपो रेट के नकारात्मक प्रभावों के कारण आर्थिक गतिविधियां कम होने से आर्थिक विकास पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ने लगता है, जिससे निम्न आय वर्गों के लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा एक आवश्यकता बन जाती है। ऐसे में आरबीआइ के सामने यह यक्ष प्रश्न है कि महंगाई, आर्थिक विकास और वैश्विक आर्थिक स्थितियों के बीच कैसे संतुलन बनाया जाए? वर्तमान में बदलती वैश्विक परिस्थितियों में सरकार को अपनी राजकोषीय और मौद्रिक नीति की रणनीतियों को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है।

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